आज जब ऑफिस से घर आई तो थकावट बहुत ज़्यादा थी। ऑफिस में पार्टी थी तो खाना खा कर ही आई थी इसलिए तुरंत अपने कमरे में चली गयी। थोड़ी देर बाद जब पानी पीने बाहर आई तो देखा कि माँ के कमरे की बत्ती बंद है। मैं पानी लेकर बैठक में रखे सोफ़े पर बैठ गयी और टी.वी पर चैनल बदलने लगी कि अचानक मुझे कुछ पुराने दस्तावेज़ ढूंढना याद आया।
मैं स्टोर-रूम की बत्ती जलाकर अन्दर गयी और अपने कागज़ ढूँढने लगी कि तभी मेरी नज़र एक डायरी पर पड़ी।
वो मेरी नहीं थी क्योंकि मैं अपने राज़ किसी से साझा नहीं करती थी, किसी डायरी से भी नहीं। माँ की होगी यह सोच कर फिर मैं अपने काम में लग गयी पर ना जाने क्यों अब मेरा मन वो डायरी पढ़ने के लिए मचल रहा था। हालाँकि मेरी और माँ की कभी बनी नहीं पर आज ना जाने क्यों मैं खुद को उनकी ज़िन्दगी में झाँकने से रोक नहीं पायी। हमारे बीच के रिश्ते में ना जाने कब की तल्ख़ी आ चुकी थी पर आज उन्हें जानने का यह मौका मैं छोड़ना नहीं चाहती थी।
अपने कागज़ों को भूल मैं अपने बिस्तर पर आराम से बैठकर माँ की डायरी पढ़ने लगी।
19 जनवरी 92
आज मुझे सड़क पर एक बच्ची मिली। बहुत ही प्यारी, ना जाने कैसे लोग होंगे जिन्होंने इतनी प्यारी बच्ची को ऐसे छोड़ दिया। मैं उसे पुलिस को दे आई हूँ और उसे गोद लेने के लिये अर्ज़ी भी लगा आई हूँ। अब बस मेरी अर्ज़ी स्वीकार हो जाए, मुझे और कुछ नहीं चाहिए।
25 जनवरी 92
आज मेरी नन्हीं परी घर आ गयी। मेरी ज़िन्दगी अब पूरी हो गयी। भगवान मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है अब।
19 जनवरी 94
आज रहम दो साल की हो गयी और आज ही उसने पहली बार मुझे माँ कहा। उसके इस एक शब्द ने मेरे हर एक दुःख-दर्द को ख़त्म कर दिया। आज उसने सही मायने में मुझे पूरा कर दिया।
18 अगस्त 94
रहम बड़ी हो रही है। अब मुझे पैसों की ज़्यादा ज़रूरत पड़ेगी। रहम की अच्छी परवरिश के लिए बहुत पैसे लगेंगे। अब मुझे बहुत मेहनत करनी होगी।
20 जनवरी 96
रहम मेरी ज़िंदगी में नेमत बन कर आई है। उसके आने से सब अच्छा ही हो रहा है। मेरा कारोबार भी अच्छा चल रहा है। अब हमारी ज़िंदगी में बस खुशियाँ होंगी।
1 अप्रैल 98
आज रहम का उस बड़े वाले स्कूल में पहला दिन था। आज से उसकी ज़िंदगी की एक नयी शुरुआत हुई है। भगवान आप अपनी कृपा ऐसे ही बनाए रखना।
16 नवम्बर 2000
काफ़ी दिन बाद लिख रही हूँ। अब फुर्सत ही नहीं मिलती। रहम अब तीसरी में पढ़ती है। शायद उसे स्कूल में सब मेरे अलग रंग-रूप के लिए चिढ़ाने लगे हैं। लोगों की परवाह नहीं है मुझे बस कहीं ये सब उसे मुझसे दूर ना कर दे। हे भगवान! दया करना।
30 जुलाई 02
आज रहम ने मुझे बस स्टॉप तक आने से मना कर दिया। हालाँकि वो यही दिखा रही थी कि अब वो बड़ी हो गयी है और बस तक अकेले जा सकती है पर उसके अंदर आये बदलाव को मैं देख रही हूँ। बस इसी का डर था मुझे।
26 मार्च 02
रहम अब 10 साल की हो गयी है और अपनी माँ से दूर, हॉस्टल में रहना चाहती है। सही भी है, अब उसे रोज़ रोज़ नए ताने नहीं सुनने होंगे अपने सहपाठियों से और वैसे भी इस शहर में इतने अच्छे स्कूल कहाँ है?
5 अप्रैल 02
अब घर काटने को दौड़ता है। अकेले रहा नहीं जाता। दिन तो काम के बोझ में निकल भी जाता है पर रातें नहीं कटतीं। मेरी बच्ची, तुम ठीक तो हो ना। माँ तुम्हें बहुत याद करती है।
10 अप्रैल 2010
स्कूल की पढ़ाई पूरी करके आज रहम वापस आ गयी है। अब हम माँ-बेटी खूब बातें करेंगे। इतने दिनों के बाद अब हम फिर से साथ रहेंगे।
15 अगस्त 10
रहम का दाख़िला यहीं के आई.आई.टी में हो गया है। उसकी ज़िद में मैंने हॉस्टल तो दिला दिया है पर वो हर हफ़्ते मुझसे मिलने आया करेगी।
30 नवम्बर 10
तीन महीने से ज्यादा समय हो गया पर रहम मुझसे मिलने नहीं आई। जब मैं जाती हूँ तब भी कोई न कोई बहाना मारकर आने से मना कर देती है।
क्या समाज की तरह मेरी बेटी भी मुझसे नफ़रत करती है? उसकी उपेक्षा नहीं झेल पाऊँगी मैं। हे इश्वर! अब आप ही कुछ रास्ता दिखाएं।
19 नवंबर 14
आज मेरी बेटी को नौकरी मिल गयी। सबसे ज़्यादा नंबरों से पास हुई है मेरी बेटी। मेरी तपस्या सफल हुई।
उसे दिल्ली में ही नौकरी भी मिल गयी है। अब सब दूरियाँ ख़त्म।
25 जुलाई 15
रहम बदल गयी है। गलती उसकी भी तो नहीं है। एक किन्नर की बेटी होना किसे पसंद है? शायद मेरी ही गलती है कि एक किन्नर होने के बाद भी मैंने उसे गोद लिया। कम से कम वो समाज में चल सकती थी बिना शर्मिंदगी के। मुझे माफ़ कर देना मेरी बच्ची।
27 फ़रवरी 16
रिश्तों की डोर टूट चुकी है। हफ़्तों हमारी बात नहीं होती।
उसके दोस्त जब घर आते हैं तो मैं कमरे से बाहर नहीं निकलती हूँ। उसने मना नहीं किया है पर मैं जानती हूँ उसे पसंद नहीं है मेरा उसके दोस्तों से मिलना।
शायद इसीलिए हमें समाज से अलग कर दिया जाता है। हे इश्वर, इस बार तो ये ज़िंदगी दी पर आगे कभी नहीं। और किसी चीज़ से शिकायत नहीं है मुझे पर अपनी रहम की अवहेलना नहीं झेल सकती मैं।
अभी कुछ ही दिनों पहले की थी वो आखिरी तारीख। शायद मेरी प्रमोशन की खुशी में जब दोस्त अचानक घर आ गये थे और माँ को बंद दरवाज़े के पीछे से ये खबर मिली थी। याद है मुझे उनकी वो मायूस आंखें। ग्लानि हो रही थी मुझे खुद से। क्या नहीं किया माँ ने और मैंने इस कदर तड़पाया उन्हें। कहने को माँ कहती रही पर सच तो यह है कि कभी माँ का दर्जा दिया ही नहीं मैंने उन्हें।
अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए उसी समय मैंने माँ से माफ़ी माँगने का निर्णय लिया। अब उन्हें दुनिया की हर ख़ुशी दूँगी। बिना किसी शर्त के प्यार किया था उन्होंने मुझे, उनके हर दुःख की दवा बनने का इरादा कर लिया था मैंने।
सुबह के 6 बज रहे थे। नाश्ते के साथ माफ़ी माँग लूँगी ये सोच कर मैं रसोईघर में जा कर नाश्ता तैयार करने लगी। सब कुछ 7 बजे तक नाश्ता तैयार करके, मैं माँ के कमरे में पहुँची। धीरे से दरवाज़ा खोलकर जैसे ही मैंने बत्ती जलाई तो वहीं निर्जीव सी खड़ी रह गयी मैं।
सामने माँ पँखें से लटकी हुई थीं। नहीं, ख़ुदकुशी नहीं, हत्या थी वो। मेरी उपेक्षा ने जान ले ली थी उनकी। अपनी माँ की हत्यारिन मैं ही तो थी।