ना जाने क्यूँ

सारा कसूर मेरा तो नहीं ,कुछ तो तुम्हारी उस अल्ल्हड़ खिलखिलाहट का भी है,जिसने पहली बार मेरा ध्यान तुम्हारी ओर खींचा था। कुछ गुस्ताखी तो उन बेबाक बातों की भी है, जो किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लें। कुछ गुनेहगार तो तुम्हारी वो ख़ूबसूरत कविताएं भी हैं जो गाहे बगाहे मेरे दिमाग में अपना घर बना ही लेती हैं। कुछ शरारत तो तुम्हारे इन अधरों की भी है जो बिना कुछ बोले ही इतना कुछ कह जाते हैं। सारा दोष मेरा ही नहीं ।

तुम्हें देख कर यह तो दावे से कह सकता हूँ की ऊपर वाले ने तुम्हें " ना कजरे की धार " की तर्ज़ पर बनाया है। बिना किसी श्रृंगार के भी तुम कितनी खूबसूरत लग रही हो। बेशक तुम दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत लड़की हो और यह मैं सिर्फ़ इसलिए नहीं कह रहा की तुम्हारा पति हूँ। 

और तुम्हारा पति बनना भी कौन सा आसान था ? कितने पापड़ बेले हैं मैंने तुम्हें पाने के लिए , कुछ पता भी है तुम्हें? सबसे पहले तो तुम्हें ही मनाना, टेढ़ी खीर पकाना था और ऊपर से यह  शर्त की पहले मैं अपने घरवालों से बात करूँ और उनसे आज्ञा लूँ। अब जैसे ये कोई सरल काम था। उन्हें एक बार यह तो समझा भी देता की प्यार जात - पात , रंग - भेद नहीं देखता पर किसी की अपंगता भी नहीं देखता ये थोड़ा जटिल था। थोड़ा नहीं, असल में बहुत मुश्किल।

पर हम भी इश्क की राह में कफ़न बाँध कर चल पड़े थे यह गुनगुनाते हुए की ये इश्क नहीं आसान , बस इतना समझ लो कि एक आग का दरिया है और तैर के जाना है। जब घर पर प्रेम विवाह का ज़िक्र किया , तो अचानक जैसे भूचाल आ उठा। किसने क्या कहा कुछ समझ नहीं आया,  सब एक साथ जो चिल्ला पड़े थे।  फिर सहसा पिताजी, ना जाने क्या सोच कर बोल पड़े - कौन है वो लड़की । बताओ उसके बारे में। ये उम्मीद तो नहीं की हमारी बिरादरी की होगी पर हिन्दू तो है ना ? 

"है तो हिन्दू ही , और बिरादरी भी अपनी है पर" … इससे पहले की मैं अपनी बात ख्त्म कर पाता पिताजी बीच में ही बोल उठे  ,"पर ? पर क्या? लड़की तो है ना ?" उनकी कठोर आवाज़ में डर साफ़ झलक रहा था। माँ ने तो रुद्र क्रंदन भी शुरू कर दिया था कि उनका बेटा एक लड़के से प्यार करता है। मैं कुछ झुंझलाकर बोला "सुन तो लो । लड़की ही है। बस देख नहीं सकती।"

आज तक हमारे घर में किसी की मैय्यत में भी इतना सन्नाटा नहीं हुआ था जितना उस दिन था। नॉएडा वाली बुआ जी तो ना जाने क्या क्या बोल रहीं थी। उनकी बातें तो कबका सुनना छोड़ चुका हूँ। माँ बस रोये जा रही थी ,बीच बीच में बडबडा भी लेती थी " प्यार अँधा होता है यह तो सुना था,अब तो अंधो से भी होने लगा है ।"
खैर उन्हें तो मना लिया और तुम्हे भी पर अब बस । इतनी सहेनशक्ति नहीं है मुझमेँ कि मैं सबको मनाता ही रहूँ । कभी तुम्हें तो कभी घरवालों को तो कभी इश्वर को। सात जन्मों के साथ की बात कर , कुछ दिनों में ही साथ छोड़ देने को तो धोखा ही कहते हैं ना। तो श्रीमती जी आप हमें धोखा ही दे रहीं हैं। तुम हर रोज़ ही तो कहती थी की मेरा साथ पाकर तुम्हें ज़िन्दगी के मायने मिल गये हैं फिर इस झूठ की क्या वजह थी? क्यूँ तुमने एक बात भी न छुपाने का वादा कर, इतनी बड़ी बीमारी मुझसे छुपाई ? क्यूँ अपने दर्द से अकेले लड़ी जबकि हमने तो सब कुछ बांटने का वादा किया था। यूँ चुप ना रहो। कुछ तो बोलो । वो कविता ही सुना दो जो मुझे नहीं पसंद। हाँ , वही  जिसमें वो दोनों मिल कर भी हमेशा के लिए अलग हो जाते हैं। वही ……

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