नयी शुरुआत

दो दिन और एक पूरी रात ऑफिस में बिताने के बाद , आज मैं घर जा रहा था। नींद मुझे अपने आगोश में लेने को तैयार ही बैठी थी । मैं जल्द से जल्द घर पहुँच कर सो जाना चाहता था। घर क्या, वही अपना 2 BHK का फ्लैट , जहाँ मैं अकेले ही ज़िन्दगी की गुज़र बसर कर रहा हूँ। 

खाना बनाने की हालत में नहीं था तो सोचा बाहर से ही कुछ लेता चलूँ पर जब तक ये ख्याल आया तब तक काफ़ी आगे निकल आया था और कोई अच्छी दुकान अब आगे थी नहीं । पीछे जाने का तो सवाल ही नहीं था। पलकें भारी सी हो रही थी की तभी मुझे अचानक घंटो की गूँज सुनाई दी। घर के पास ही शिव जी का एक बड़ा ही प्रसिद्ध मंदिर था। ना जाने कितने ही लोग हर रोज़ वहाँ आते। कोई मीलों चल कर पैदल पहुँचता, तो कोई नंगे पाँव। कोई सैकड़ों परिक्रमाएं करता तो कोई घुटनों के बल दसियों सीढियां चढ़ कर जाता। हालाँकि, मैंने तीन साल पहले ही वहाँ जाना बंद कर दिया था। शिव जी से कुछ लड़ाई चल रही थी मेरी। ना वो मनाने आये , ना मैं उनके पास फ़िर कभी गया। उसी मंदिर के पास एक ठेला लगता था- पाव भाजी का। शायद ही मैंने उसके जैसी पाव भाजी खायी हो। पर जब से मंदिर से रिश्ता टूटा, उससे भी टूट गया। पर कहते हैं ना पेट के आगे किसी की नहीं चलती।

जैसे ही गाड़ी , सड़क किनारे पार्क कर , ठेले तक पंहुचा, तो ठेलेवाले भईया पहचानने की कोशिश करते हुए मुस्करा दिए। मैं वहाँ से जल्दी निकालना चाहता था। यादों की वो पोटली जिसे मैं बरसों अपने अन्दर छुपाये हुए था , बाहर आने को कुलबुला रही थी। मेरा आर्डर आने में अभी थोड़ा वक़्त था तो वहीँ पास की एक बेंच पर बैठ गया।

शायद सो गया था मैं और सपना देख रहा था क्योंकि हकीक़त में ये मुमकिन नहीं था। वो बिलकुल मेरे  सामने खड़ी थी। हल्के गुलाबी रंग के सूट में बेहद ख़ूबसूरत लग रही थी वो। कुछ भी तो नहीं बदला था।वही चेहरा, वही आँखें जो सागर की गहराई लिए हैं। पर ना जाने क्यूँ कुछ अधूरी सी लग रही थी आज।
उसे देखने के बाद तो खुद पर काबू ही नहीं था मेरा। पता ही नहीं चला कब मैं वहाँ से उठ कर उसके सामने पहुँच गया पर उसके सामने पहुँचते ही कदम ठिठक गए।

वो अचानक मुझे सामने देख सहम गयी फिर जैसे नींद से जागी हो , मुझे देख मुस्कुरायी। वक़्त जैसे ठहर सा गया था। ना मैं कुछ बोला, ना उसने कुछ कहा पर जैसे उस पल में हमने सदियों की बातें कर डाली।
हमारी ख़ामोशी पाव भाजी वाले भैया ने तोड़ी। उसे घर छोड़ने की बात कही तो थोड़ी न नुकुर के बाद मान गयी। सिवाए रास्ता बताने के वो चुप ही रही । घर पहुँच कर उसने मुझे चाय के लिए अन्दर बुलाया पर ना जाने क्यूँ उस आवाज़ में अपनत्व नहीं था , सिर्फ औपचारिकता थी।

वो अन्दर चली गयी और मैं वहीं उसे जाते हुए देखता रहा । फिर कुछ डरते हुए गाड़ी से उतरा और धीमे कदमों से घर की ओर चल पड़ा। कुछ अजीब सी ख़ामोशी छायी हुई थी । अन्दर पहुंचा तो ऋतिका की माँ चाय बना रही थी और वो चुप चाप एक कोने में बैठी थी। मैं सामने पड़े सोफे पर बैठा ही था की मेरी नज़र सामने दीवार पर गयी। अंकल आंटी की तस्वीरों पर माला चढ़ी थी। मैं बिल्कुल सन्न रह गया। इशिता पर क्या गुज़री होगी? अंकल में तो उसकी जान बसती थी। इतने बड़े दर्द में , मैंने उसे अकेला छोड़ दिया यह सोच सोच कर मुझे खुद से ग्लानि होने लगी ।

मैं दौड़कर किचन गया और और इशिता को गले लगा लिया। कुछ पल के लिये तो जैसे वो बिल्कुल जम सी गयी पर धीरे धीरे उसकी सिसकियाँ पूरे घर में फैल गयीं। मुझे पकड़कर इशिता बस रोए जा रही थी। ऋतिका दूर से बस अपने माँ पापा के इस मिलन को देख रही थी। ना जाने कब तक हम वहाँ ऐसे ही खड़े रहे। ना सेकंडों की खबर थी ना मिनटों का पता। चाय जलने की गंध पर इशिता ने अचानक हड़बड़ा कर गैस बन्द की ।
तीन साल पहले एक ग़लतफहमी ने मुझे मेरी बीवी के सामने गुनहगार साबित कर दिया था। मेरी हर सफ़ाई , हर दलील को काटते हुए, इशिता के बाउजी ने हमें अलग कर दिया था। तलाक़ ने सिर्फ हमारे रिश्ते को ही नहीं पर मुझे भी झकझोर कर रख दिया था।

तीन साल से हर दिन तड़प कर बिताया था मैंने। और अब यह सब। बड़ी हिम्मत कर मैंने उससे फिर से माफ़ी मांगी और एक नयी शुरुआत का अनुग्रह किया।

ऋतिका , वहां आकर मुझसे लिपट गयी और अपनी माँ से बोली , माँ सब भूल जाते हैं ना प्लीज। अपनी अधूरी कहानी को पूरी कर लेते हैं। शायद मैंने एक मुस्कान देखी उसके होंठों पर।

रिश्तों पर पड़ी धुंध अब साफ़ हो रही थी। बहार मेरी बेरंग ज़िन्दगी में फिर से दस्तक दे रही थी । और मैं पूरे परिवार संग जा रहा था उसी शिव मंदिर में।


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