माँ

आज फिर कहानी की जिद की थी उसने ।
आज फिर वही सवाल लगे थे रिसने ।
सुला दिया था उसे आज भी डपटकर।
नजरें चुरा, बुझा दी थी बत्ती झटक कर।।
हर शाम मासूम नजरें ढूँढा करती थी जिन्हें,
खुद ही तो वृद्धाश्रम छोड़कर आया था मैं उन्हें ।
किंकर्तव्यमूढ था, पत्नी और माँ में किसे चुनता?
हार गई थी उस दिन माँ की ममता ।

'कल माँ से मिलने जाऊँगा ' कहा था पत्नी से  मैंने।
सहम गया था देख उन्हें निष्ठुरता का जामा पहने ।।
लफ्ज़ों से तो नहीं ,पर बहुत कुछ कह गईं थी वो आँखे।
अवहेलना कर जिनकी, चल पड़ा था पास मैं माँ के।
एक साड़ी निकाल दी थी माँ के लिए श्रीमती जी ने,
मना कर दिया था जिसे लेने से कामवाली ने।
बचपन में  एक पल भी जिसके बिन मन न था रमता,
तैर गईं फिर वही पथराई आँखें जिनमें झलकती थी ममता।

घुसते ही आश्रम में,रुक गई थी नज़र वहाँ,
ममता की वो मूर्त बैठी थी जहाँ ।
नींद से जैसे जागी वह चरणों पर स्पर्श से।
खिल गईं थी बाँछे उसकी , मुझको यूँ देखकर ।।
एक मुस्कान तैर गई थी उसके शुष्क अधरों पर,
आँखें डबडबा गईं मेरी देख ज़ख्म उन कर कमलों पर।
प्यार से हाथ फेर ,पास बैठा लिया था अपने,
लजा गया था चूरकर के यूँ उसके सपने।

जिसकी दुआओं में सिर्फ़ नाम था मेरा,
दवाएँ न जाने कब उन पर पड़ गईं भारी।
चलना सीखा था पकड़कर आँचल जिसका,
कैसे उसे छोड़ आया दूजी नगरी ।
आज भी अपनी गोद में सिर रख लिया था माँ नें ,
माथा सहलाते हुए शायद भूल गई वो ताने।
अनायास ही बोल पड़ा 'माँ!  चलो घर',
अश्रु धाराएँ रही थी आँखों से झर।
एक ठन्ड़ी आह छोड़, शान्त हो गई वह।
विक्षिप्त सा देखता,गया सन्न मैं रह,
वह पथराई आँखें जिनमें अब भी झलक रही थी ममता

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